प्रेरक प्रसंग – संत तुकाराम की सीख…

संत तुकाराम के शिक्षा - प्रेरक प्रसंग

मध्यकालीन भक्ति धारा के संतों में तुकारामजी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। 17वीं शताब्दी के भारतीय महापुरुषों में अग्रणी संत तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र में पुणे के पास देहू गांव में हुआ था। संत तुकाराम के मराठी में दिए उपदेश ‘अभंग’ कहलाते हैं। महाराष्ट्र के जनमानस पर संत तुकाराम का अमिट छाप है। संत कबीर की तरह तुकारामजी ने भी गृहस्थ रूप में संत जीवन जीने का उत्कृष्ट उदाहरण समाज के सामने रखा। प्रस्तुत है संत तुकाराम के जीवन से जुड़ा एक प्रेरक प्रसंग।

संत तुकाराम की सीख- क्षणिक जीवन और हमारा बरताव 

गृहस्थ के रूप में घर-परिवार की जिम्मेदारियों और जीवन के उतार-चढ़ावों के बीच भी संत तुकाराम पूर्ण स्थितप्रज्ञ थे। वे हर परिस्थिति में पूरी तरह शांत, संतुलित और प्रसन्न रहते थे। परिस्थितियां कितनी भी विकट हों और दूसरों के व्यवहार में कितना भी उतार-चढ़ाव आ जाए, मगर तुकारामजी धैर्य, संयम शांति के मार्ग से कभी डिगते नहीं थे। गृहस्थ जीवन के दायित्वों के बीच ईश्वर की उपासना में लीन संत तुकाराम सदैव शांतिपूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते और लोगों को ईश्वर उपासना, शांति व संयम का उपदेश देते।

उनके शिष्यों में एक शिष्य जरा गुस्सैल स्वभाव का था। वह जब कभी गांवों में जाता लोगों तक गुरु की शिक्षा फैलाता। लेकिन, वह लोगों की गलतियों और दोषों पर क्रोधित हो जाता था। बुराइयां और लोगों की खामियां देखकर तुरंत उत्तेजित हो जाना उसका स्वभाव था। उसे तुकारामजी की निर्बाध शांति, संयम और प्रसन्नता से हैरानी होती थी। एक बार उसने पूछ ही लिया, ‘गुरुदेव, विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी आप इस तरह शांत और संयमित कैसे रह लेते हैं। कृपा कर हमें भी इसका रहस्य बताएं’।

तुकारामजी ने दुःख भरे स्वर में कहा, ‘इसका उत्तर तुम्हें मिल जाएगा बेटा, किंतु इस वक्त मैं जो देख पा रहा हूं वह जानना तुम्हारे लिए अधिक जरूरी है। आज से सातवीं रात्रि तुम्हारी मृत्यु तय है’। शिष्य युवा और पूरी तरह भला-चंगा था। अचानक अपनी मृत्यु की बात सुनकर वह सन्न रह गया। कोई और कहता तो शायद उसे विश्वास न होता, लेकिन स्वयं संत तुकाराम के मुंह से निकली इस बात पर वह कैसे नहीं भरोसा करता। सो, निराश मन से शिष्य ने गुरु से विदा ली और जीवन के आखिरी पल परिवार के साथ बिताने की बात सोचकर घर की ओर रवाना हुआ।

अंतिम घड़ी पास जानकर शिष्य ने घर जाकर एक नई जिंदगी शुरू की। अब वह सबके साथ प्रेम से बरताव करता। पिछले व्यवहारों के लिए वह अपने परिवार और मित्रों से क्षमा मांगकर उनके साथ प्रेम और विनम्रता से पेश आता। मन ही मन वह पहले के अपने क्रोधी बरताव का पश्चाताप करता। सारा दिन ईश्वर का ध्यान करता और लोगों से उनके दुःख में काम आने वाली बातें बताता। वह चाहता सबका मन हल्का हो और उसकी वजह से किसी का मन न दुखे। अब उसके स्वभाव में क्रोध और आवेश का कोई चिह्न नहीं बचा। इस तरह वह अपने अंदर-बाहर पूरी तरह शांति और प्रेम से लबालब भर गया।

सातवें दिन उसने सोचा- बस अब कुछ घंटे और बचे हैं, क्यों न गुरु का दर्शन का उनसे अंतिम आशीर्वाद ले लूं। वह तुकारामजी से मिलने गया और उनके चरणों में झुककर बोला, ‘गुरुदेव, आशीर्वाद दें। अब इस शरीर से आपका दर्शन न कर पाउंगा’। तुकारामजी ने उसे सिर पर प्यार से हाथ फेरा और उसे कंधों से पकड़कर उठाते हुए बोले, ‘बेटा शतायु होओ। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है।

गुरु के मुंह से दीर्घजीवी होने का यह आशीर्वाद सुनकर वह असमंजस में पड़ गया। उसकी हैरानी भांप कर तुकारामजी ने पूछा, ‘अच्छा, यह बताओ इन सात दिनों को तुमने कैसे बिताया? कितने लोगों की गलतियों पर तुम क्रोधित हुए? कितनों से तुम्हारा झगड़ा हुआ?

शिष्य ने हाथ जोड़ कर भरे गले से कहा, ‘गुरुदेव मेरे पास जीने के लिए बस सात दिन थे, तो कैसे मैं इन्हें उस  तरह बर्बाद करता। मुझे तो इन्हीं सात दिनों में पूरा जीवन जी लेना था। किसी के भी संग उलझने या उनकी गलतियों पर क्रोध करने का विचार ही मेरे मन में नहीं आया। ध्यान-मनन और ईश्वर के स्मरण के अलावा मुझे लगा इन सात दिनों में लोगों के अवगुण और उनकी गलतियों पर ध्यान देने की बजाए प्रेमपूर्वक उनसे अपना सबकुछ बांट लूं। जिसका भी मन दुखाया था मैंने उन सबसे क्षमा मांगी और बगैर उनके दोषों पर ध्यान दिए, बिना शर्त उनमें आपकी शिक्षा बांटी।

तुकारामजी मुस्कुराए और बोले, ‘बेटा तुमने पूछा था न कि मेरे शांत व्यवहार का क्या रहस्य है? यही तो है, जो आज तुम समझ पाए हो। मानव जीवन बहुत छोटा है, और उस पर से अनिश्चित भी। यह बात यदि हमारे मन को हमेशा याद रहे तो हम क्रोध और खिन्नता जैसी नकारात्मक और व्यर्थ की बातों में एक पल भी न गंवाएं! मुझे सदैव यह याद रहता है कि मैं कभी भी मर सकता हूं। इसलिए, लोगों के दोषों में उलझने की बजाए मेरा ध्यान लोगों की सेवा और उनके साथ अपने आत्म-विकास पर केंद्रित रहता है’।

शिष्य समझ गया था, तुकारामजी ने उसके मन में मरने की बात डाल कर उसकी आंखें खोल दी थीं!

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फलसफा यही कि चलते रहना, सीखते रहना और बांटते रहना। अपने बारे में मुझे लगता है यही काफी है, बाकी हम भी आपकी तरह ही हैं।

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